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लघुकथाएँ

दाग अच्छे हैं...

दीपक मशाल


- निकल बाहर यहाँ से... बदतमीज कहीं का...

बरसाती गंदे पानी से सनी चप्पलें पहिने कल्लू को अपने घर में अंदर घुसते देख शोभा आंटी ने अचानक काली रूप धारण कर लिया और उसकी कनपटी पर एक तमाचा जमाते हुए उसे घर से बाहर निकाल दिया।

- रमाबाई तुमसे कितनी बार मना किया है कि अपनी संतानों को यहाँ मत लाया करो.. सारा धुला-पुँछा घर जंगल बना देते हैं...

आंटी ने अपनी कामवाली बाई को डाँटते हुए कहा।

- आगे से नईं लाऊँगी मेमसाब... मैं लाती नहीं पर क्या करुँ ये छोटा वाला मेरे पीछे-पीछे लगा रहता है...

अपनी आँख में भर आए पानी को रोकते हुए घर के बाहर खड़े होकर कनपटी सहलाते कल्लू की तरफ देख बेबस रमाबाई बोली।

रमाबाई ने चुपचाप पोंछा लेकर पायदान के पास बने कल्लू के तीनों पदचिन्हों को मिटा दिया।

थोड़ी देर बाद आंटी का बेटा प्रसून स्कूल बस से निकल कीचड़ में जूते छप-छप करते घर में घुसा तो उसे देख आंटी का वात्सल्य भाव जाग उठा -

- हाय रे कितना बदमाश हो गया मेरा बच्चा!!!

और प्रसून को सीने से लगा लिया...

- सॉरी मम्मी फर्श गंदा हो गया, प्रसून ने ड्राइंग रूम के बीच में पहुँच कर मासूमियत से कहा।

शोभा आंटी उसकी स्कूलड्रेस उतारते हुए बोलीं -

- कोई बात नहीं बेटा 'दाग अच्छे हैं' है ना? अभी बाई फर्श साफ कर देगी डोंट वरी।

बाहर खड़ा कल्लू गंदे पानी से भीगी अपनी चप्पलें प्रसून के कीचड़ सने जूतों से मिला रहा था।


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